पंजाब। पंजाब के विधानसभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहे हैं सियासी पारा भी बढ़ता जा रहा है। इस बार पंजाब की सियासत पर पंजाबियत के अलावा किसान आंदोलन का खासा असर देखने को मिल रहा है। जिसका सबसे बड़ा नतीजा सामने नजर आ रहा है अकाली दल और बीएसपी के गठबंधन के रूप में। ये ऐतिहासिक गठबंधन 25 साल के लंबे अंतराल के बाद दोबारा देखने को मिला है। इसकी नींव में ढाई दशक पुराने कई सियासी समीकरण हैं। जिन पर एक बार फिर सत्ता का महल सजाने के इरादे से अकाली दल ने ये गठबंधन किया है। पंजाब जैसा प्रदेश होने के नाते ये समीकरण थोड़े पेचिदा नजर आ सकते हैं। पर राजनीति की दुनिया में वोट की खातिर ऐसी उलझन सुलझा ही ली जाती है। और उनके लिए ऐतिहासिक संदर्भ भी चुन ही लिए जाते हैं।
32 फीसदी दलित वोट बैंक पर दांव
पंजाब में दलित वोट बैंक तकरीबन 32 फीसदी है। किसी पार्टी की हार जीत तय करने वाले वोटों का ये एक बड़ा हिस्सा है। इसके बावजूद कभी पंजाब में कोई दलित व्यक्ति सीएम नहीं बन सका। इसलिए अब अकाली दल का ये दांव बड़ा माना जा रहा है। जो बीएसपी को सत्ता में आने पर बड़ा पद देने का वादा भी कर ही चुका है। आपको बता दें कि बीएसपी के संस्थापक कांशीराम का पंजाब से गहरा नाता रहा है। वो पंजाब के होशियारपुर से ही आते थे। बीएसपी की इन्हीं जड़ों को खंगाल कर पार्टी का वोटबैंक भुनाने की कोशिश की जा रही है। 25 साल बाद सियासत का ये प्रयोग दोबारा दोहराया जा रहा है। इस बार इसका अंजाम देखना दिलचस्प होगा।
मांझा-मालवा में बीजेपी का विकल्प
पंजाब का मांझा और मालवा का इलाका अकाली दल की पैठ वाला इलाका है। इन दो में से मालवा में ही विधानसभा सीटे हैं। बीजेपी के साथ गठबंधन में रहते हुए अकाली दल को यहां हिंदू वोट बैंक का फायदा मिलता रहा। पर अब बीजेपी से गठबंधन टूटने के बाद रणनीति बदलना अकाली दल की मजबूरी भी थी और जरूरत भी। यही वजह है कि दलित और हिंदू वोट बैंक को साधने के लिए अकाली दल ने ये दांव खेला है। इशारा साफ है अकाली दल पंजाब में बीएसपी को अपने साथ बीजेपी के विकल्प के तौर पर देख रहा है।
अब देखना ये है कि ये सियासी दांव जितना सोच समझ कर खेला गया है अकाली दल के लिए क्या उतना ही फायदेमंद साबित होता है। या फिर बीजेपी से गठबंधन टूटने का फायदा कांग्रेस को ही होता है।
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